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Showing posts from May, 2021

उलझन

- जैसे आहिस्ते से अलग होती नदियां पहाड़ों से, दूर जाती हुई वो धुन जब धीरे से अलग होतें है वीणा के तार, या फिर वो सुलझी हुई पहेलियाँ जो शायद रहना चाहती हैं सदा उलझन में, या आहिस्ता मंडराता हुआ पंछी जो भी सोचता है जब हटाया जाता है उसका आशियाँ, कल सुलझती हुई तुम्हारी उंगलियां  अंगुलियों से मेरी उलझे रहना चाहती थीं , नहीं हुआ ऐसा शायद नदी को उम्मीद हो कि यही पर्वत बनेगा समुन्दर एक दिन जो करेगा इंतज़ार मुझे खुद में विलय करने को ।।      - पंकज 'नयन' गौतम