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Showing posts from September, 2020

अधिकार

मधुमक्खियां मास के एक पक्ष भर दूसरे पक्ष के लिए भटकतीं पुष्प-पुष्प पर रसों को संजोह कर  कर्तव्य पालते हुए मधु बनाती हैं। बारी अब अधिकार की जो जीविका निमित्त थी तब दुष्ट मानव ने उनको ही वंचित कर सारा कोष शून्य कर दिया यहीं तलक रुके नहीं कल कर दिए सभा गठित जिसमे विषय यही बना कि ''मधुमक्खियों के कोष में  क्या उनका अधिकार न था''          -पंकज नयन गौतम

आलिंगन

  सुबह की धूप सा इश्क़ तेरा और ओस की बूंदों सा मैं आलिंगन की अंतिम परिणति मिल जाऊँ बस तुझमे मैं ।।        -पंकज नयन गौतम

राब्ता खुद से

खाली इस वक्त में ढूँढ़ते हैं खुद को, लफ़्ज़ों को बांधकर बेसुध हो तन से, करता हूँ खयाल उस वीरान वक़्त में जब साथ की दरकार थी, असहाय से दरख्त कर दैव को पुकारता इन्तजार तो यूँ था जो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो, सहसा कुछ इनायत हुई रंजिशें हुई ख़तम उसी को तो ढूंढ़ता जिसने किया ये था तब मुक़म्मल हुई अब आरजू मिला जो वक्त ढेर सा हुआ जो राब्ता खुद से तो पता चला वो मैं खुद ही था ।।              -पंकज नयन गौतम

गाँव

  गाँव' जब सुनते हैं ये शब्द तो क्या आते हैं ख़्याल, खुद में मगन वो नदियां पानी से भरे तालाब, हरी भरी पगडंडी पर मुस्काते हुए किसान । पर जाते हैं जब 'गांव' अस्तित्व से जूझती नदियां खाली से पड़े तालाब वीरान पड़ी गलियों पर सिसक रहा किसान।।   -पंकज नयन गौतम

आशियाँ

  तिनकों से बुना था जो आशियाँ , उसे छोंड़  दूर दाना चुगते हैं । यहां हर पग जाल बहेलिये का, चल छोड़ परिंदे घर चलते हैं ।।              -पंकज नयन गौतम

उम्मीद

  अब उम्मीद को भी, लगने लगी हैं हमसे ही उम्मीद । कि यदि हमने ही, उम्मीद पर से, उठा लिया उम्मीद, तो छोड़ ही देगा,  उम्मीद खुद से - खुद की ही उम्मीद। उम्मीद की ख़ातिर, बस थोड़ा सा कर लें क्या उम्मीद उम्मीद है शायद उम्मीद की भी बची रहे उम्मीद।। -पंकज नयन गौतम

परिवर्तन

  मेरे दुःख और पीड़ा की तीव्रता, तब तुमको पुकारती आवाज, सब बिल्कुल वैसी ही हैं । जो कुछ भी बदल गया अब वो हैं तुम्हारी संवेदनायें , तब तो अनुभव करती थीं क्षणिक भर का भी परिवर्तन, अब तो सब रिक्त सा है, तुम्हारा मेरे प्रति अंतर्मन ।।          - पंकज नयन गौतम