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तुम

  


कैसे करूँ 
अलंकृत तुम्हें
मैं किसी
उपमान से,
प्रेक्षणीय
उस परिप्रेक्ष्य में
कुछ सूझा नहीं,
जैसे हेतु मेरे
प्राप्तव्य तुम मात्र हो ।

कहना पड़े फिर भी मुझे
तो मैं तुम्हे
प्रत्यक्ष दर्पण के बिठा
परिचय करा
तुमको तुम्हीं से,
बोलता यह
कि मेरे 
जीवन के काव्य की
एक ही तुम पात्र हो ।। 
           
       - पंकज नयन गौतम



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विंडो सीट

*विंडो सीट* आज फिर से छोटे बड़े सभी पेड़ बिना होड़ लगाए ना ही जीतने को पीछे की ओर दौड़े जा रहे हैं । आज फिर से दूर पहाड़ों के पीछे से लालिमा समेटे हुए नई उमंग के साथ सबको उज्ज्वल करने सूरज निकल रहा है। आज फिर से हरे-भरे खेतों पर चारदीवारी से बाहर स्वछन्द माहौल में दिन शुरू करने किसान टहल रहे हैं। आज फिर से खुले हुए आसमां में सीमाओं से बिना बंधे विभिन्न समूहों में एकता दर्शाते हुए पक्षी चहक रहे हैं। आज फिर से मन को आनंदित करती नव ऊर्जा को भरती अनवरत बिना थके प्रफुल्लित करती हुई पवन चल रही है। आज फिर से दो किनारों के बीच सुंदर नृत्य करती हुई शांत वातावरण में संगीत गुनगुनाती हुई तरंगणी बह रही है। आज फिर से बहुत दिनों बाद मैं निज ग्राम की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ , , हां मैं विंडो सीट पर हूँ। हां मैं विंडो सीट पर हूँ।।       - *पंकज नयन गौतम*

नव ईस्वी सम्वत् की हार्दिक शुभकामनाएं

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उम्मीद

  अब उम्मीद को भी, लगने लगी हैं हमसे ही उम्मीद । कि यदि हमने ही, उम्मीद पर से, उठा लिया उम्मीद, तो छोड़ ही देगा,  उम्मीद खुद से - खुद की ही उम्मीद। उम्मीद की ख़ातिर, बस थोड़ा सा कर लें क्या उम्मीद उम्मीद है शायद उम्मीद की भी बची रहे उम्मीद।। -पंकज नयन गौतम

राब्ता खुद से

खाली इस वक्त में ढूँढ़ते हैं खुद को, लफ़्ज़ों को बांधकर बेसुध हो तन से, करता हूँ खयाल उस वीरान वक़्त में जब साथ की दरकार थी, असहाय से दरख्त कर दैव को पुकारता इन्तजार तो यूँ था जो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो, सहसा कुछ इनायत हुई रंजिशें हुई ख़तम उसी को तो ढूंढ़ता जिसने किया ये था तब मुक़म्मल हुई अब आरजू मिला जो वक्त ढेर सा हुआ जो राब्ता खुद से तो पता चला वो मैं खुद ही था ।।              -पंकज नयन गौतम