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एक ख्वाहिश


जो संजोए हूँ वर्षों से, उसे खोना चाहता हूँ,

इन 'आवाजो' से खाली मैं होना चाहता हूँ,
थक गया हूँ अब इन भावों को ढोते- ढोते,
अब हवाओं में खुलकर मैं रोना चाहता हूँ।।

कर दिया हूँ अलग सुख और दुख को बहुत,

फिर  इनको एक साथ, पिरोना चाहता हूँ ।
खुलके हंसता हूँ खुशियों में मैं जिस तरह,
कष्ट में भी उस तरह , मैं रोना चाहता हूँ।।

अरसों हो गए हैं मुझको तो सोए हुए,

उन्मुक्त नींद ही अब, मैं सोना चाहता हूँ।
बस तलाश जारी है उपयुक्त बिछौने की,
उस तकिए के सहारे, मैं रोना चाहता हूँ।।

दिल तो भीगा हुआ है आँसुओं से मगर,

अब पलकों को भी , भिगोना चाहता हूँ।
थक गया हूँ नाटक में यूं चलते चलते,
एक ही है ख्वाहिश, मैं रोना चाहता हूँ।।

                   - Pankaj Nayan Gautam


Comments

  1. Replies
    1. धन्यवाद भ्रातेश्री ,प्रणाम🙏

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  2. Replies
    1. यह भी तो एक स्वाभाविक गुण है

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    2. कबहू नही रोई न तो एसे लागा करत है कि 'रोमय' के साथ नागा न होय।

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  3. "अन्तर्मन का कौतूहल"....!!☺️

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