गाँव' जब सुनते हैं ये शब्द तो क्या आते हैं ख़्याल, खुद में मगन वो नदियां पानी से भरे तालाब, हरी भरी पगडंडी पर मुस्काते हुए किसान । पर जाते हैं जब 'गांव' अस्तित्व से जूझती नदियां खाली से पड़े तालाब वीरान पड़ी गलियों पर सिसक रहा किसान।। -पंकज नयन गौतम
( जीत की ऊंचाई पर आज अकेले बैठे हुए बीते लम्हों को याद कर खुद से ही छिपाकर आज मैं सोचता हूं काश ! हार गया होता ।। जाने क्यों खुश था उस लमहे को जीत कर उसकी हार तो जीत थी मेरी जीत को हार मान आज मैं सोचता हूं काश ! हार गया होता ।। आखिर क्या थी वजह उससे ही जीतने की जो खुद ही हार कर खुश था मेरी जीत पर तो आज मैं सोचता हूं काश ! हार गया होता ।। शायद जानता ना था या अनजान था जानकर खुद को साबित करने की उस गलती को मान कर आज मैं सोचता हूं काश ! हार गया होता ।। चलना है आगे अब ...
खाली इस वक्त में ढूँढ़ते हैं खुद को, लफ़्ज़ों को बांधकर बेसुध हो तन से, करता हूँ खयाल उस वीरान वक़्त में जब साथ की दरकार थी, असहाय से दरख्त कर दैव को पुकारता इन्तजार तो यूँ था जो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो, सहसा कुछ इनायत हुई रंजिशें हुई ख़तम उसी को तो ढूंढ़ता जिसने किया ये था तब मुक़म्मल हुई अब आरजू मिला जो वक्त ढेर सा हुआ जो राब्ता खुद से तो पता चला वो मैं खुद ही था ।। -पंकज नयन गौतम
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