Skip to main content

ज़िन्दगी

करना पड़ता है वो भी, जो नहीं चाहते हम कभी।
बस इसी मज़बूरी का तो नाम ज़िन्दगी है।
सफल होना मक़सद नही,असफल भी होते हैं हम,
बस इसके लिए किया गया काम ज़िन्दगी है।

अपना गांव छोड़े, घर वार छोड़े, पर याद संजोए हुए हैं,,,
अब फिर लौट आने का इंतजाम ज़िन्दगी है।
रख कर दिमाग अपने घर में, निकल जाते थे दोस्तों के साथ,
बस वही 'अनमोल' सुबह और शाम ज़िन्दगी है।

हंसना, रोना, खाना ,सोना सबमें कुछ 'अलग' ही मज़ा था ।
घर में थे तो इस 'सफर' के बारे में सोचना भी सज़ा था।
बस इसी पल तक हम अनजान थे 'इस' ज़िन्दगी से,
'वो' सुकून से किया गया 'आराम' ज़िन्दगी है।

अब निकले हैं अनजाने सफर पर, कुछ तय करके पैमाने,
ये 'करना' है और ये 'नहीं करना' , लगे खुद को समझाने ,
जो 'किये'  और जो 'नहीं किये' सब बन गए ज़िन्दगी के 'किस्से';
अब जो भी हम हासिल करेंगे, वही मुक़ाम ज़िन्दगी है।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

अधिकार

मधुमक्खियां मास के एक पक्ष भर दूसरे पक्ष के लिए भटकतीं पुष्प-पुष्प पर रसों को संजोह कर  कर्तव्य पालते हुए मधु बनाती हैं। बारी अब अधिकार की जो जीविका निमित्त थी तब दुष्ट मानव ने उनको ही वंचित कर सारा कोष शून्य कर दिया यहीं तलक रुके नहीं कल कर दिए सभा गठित जिसमे विषय यही बना कि ''मधुमक्खियों के कोष में  क्या उनका अधिकार न था''          -पंकज नयन गौतम

आश्रय

- आश्रय रात का अंधेरा ओझल कर एक दुनिया को, जगा सा देता है उस जहां को जहां दिन के उजाले में बस अभिनय हो पाता है । सुनसान तब समय, वरीयता देता है, छोटी सी आवाज को स्मृतियों को, अपने मौलिक विचार को, सुलझती हैं कई ध्वनियां उन उलझी खामोशियों से । रात का अंधेरा देता है आश्रय, अनियोजित मुस्कुराहट को, बहुप्रतीक्षित उस स्वतंत्रता को जहां निषिद्ध नहीं है बहना,  पुरुष के आंसुओं को ।।                          - पंकज नयन गौतम

दो पक्षी

 - वृक्ष की डालियों पर, मनमोहक दृश्य पक्षियों का, शोर, उनका कलरव व स्वच्छंदता, देखती हुई बंद कक्ष के झरोखों से  किसी कल्पना लोक में थी प्रेमिका। हतप्रभ थी वह इस बात पर, कि क्यों नहीं हो पा रहा निश्चय उन पक्षियों के सभी जोड़ों में, उनके स्त्रीत्व व पुरुषत्व का । उसके स्वयं के अनुभव ऐसे तो बिल्कुल न थे चूंकि जरूरी है प्रमाण समाज का ।। उसे फिर तनिक असहज लगा, अनेक पक्षियों का झुंड था क्या नहीं इज्जत कोई उनके समाज की, क्यों नहीं आया कोई पर उनके कुतरने, स्वतंत्र एवं प्रेम से उड़ते हुए पक्षियों का। वे उड़ते जा रहे सुदूर आकाश में, प्रसन्नता से युक्त उनकी चहचहाहट, प्रेम का तो अर्थ होता है यही कल्पना मात्र से मुस्कुरा रही वह प्रेमिका। हालांकि उसके स्वयं के साथ के अनुभव ऐसे तो बिल्कुल न थे पर उतरना तो काम है उसके समाज का ।। उन्मुक्त से होने लगे विचार उसके, भय युक्त होकर भी लगी वह मुक्त सी, उगेंगे पंख एक दिन फिर कभी, उड़ जाएंगे गगन के उस पार तक, और हाथ में होगा हाथ उसके 'साथ' का। फिर अचानक गिर पड़ा उसका महल, बन ही रहा था जो उसके विचार में, कुछ लोग पास आते दिखे उस वृक्ष के, कुछ अस्त्र हाथो...