चलिए मान लेते हैं,
कि नहीं बदलता मौसम,
न ही कुछ नया हो जाता है ,
ना नए फूल खिलते,
न ही भंवरा गुनगुनाता है,
लेकिन यह दिन भी तो
है अपनी ही ज़िन्दगी का
मना लेते हैं यार,आखिर,
मनाने में क्या जाता है।।
गलत सोचते हैं हम
कि वो नही मनाते हमारा
तो उनका हम क्यों मनाएंगे
खुद ही डरते हैं अपनी,
हम संस्कृति भूल जाएंगे,
अमिट सभ्यता अपनी
तू व्यर्थ ही घबराता है,
मना लेते हैं यार,आखिर,
मनाने में क्या जाता है।।
ऐसा करते हैं कि,
उनका तरीका छोड़कर,
हम अपना अपनाते हैं
वो डिस्को में नाचें,
हम भजनों को गाते हैं,
इस दिन को मनाने से
ग़र कुछ अच्छा आता है
मना लेते हैं यार,आखिर,
मनाने में क्या जाता है।।
अच्छा ये सोचो,
मिल जाता है बहाना
सब से बातें करने का,
साल भर की यादों को
अपनी झोली में भरने का ,
बिना समय के होते भी
जब समय मिल जाता है
मना लेते हैं यार,आखिर,
मनाने में क्या जाता है।।
- पंकज 'नयन' गौतम
Manaa lo bhai
ReplyDeleteहां भाई
Delete😊बहुत खूब भाई साहब!!👍
ReplyDeleteधन्यवाद भाई साहब🌷
Deleteबहुत खूब लिखा है।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई 🌷
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