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उफ़्फ़! ये नींद

जब हम चाहते हैं , तब क्यों नहीं आती है ?
करते हैं लाख कोशिशें, वो भी विफल हो जाती हैं।
लेकिन, जब भी उसका मन हो हम रोक नहीं पाते,
उफ़! क्या बताएं साहब, ये नींद बहुत सताती है ।

क्या समझते हो ? कि हम नहीं चाहते सुबह जागना,
'दूसरी दुनिया' वालों की तरह 'फिटनेस' को भागना,
हमारी दुनिया भी किसी को समझ कहाँ आती है,,,,
उफ़! क्या बताएं साहब, ये नींद बहुत सताती है ।

हाँ, हम भी उठे थे समझौता करके एक प्रातः काल,
गए फिर 'दूसरी दुनिया' में बदलने अपनी चाल,
अरे ये क्या,,,यहाँ तो दूसरी प्रजाति नज़र आती है
उफ़! क्या बताएं साहब, ये नींद बहुत सताती है ।

देखते ही उनको लगा, कि हम भी जीत लेंगे ये 'जंग',
'बेटा तुझसे न हो पायेगा' ,ये कहने लगा  अंतरंग
उस 'इतिहास' की कभी कभी याद आ जाती है।
उफ़! क्या बताएं साहब, ये नींद बहुत सताती है ।

बीत चुके हैं अरसों अब, खुद को बदलते बदलते,
अभी बस उतना ही बदले हैं, जितना 'मरते का न करते',
अब जितनी भी आवाजें आती हैं,यही 'व्यंग्य' सुनाती हैं,
उफ़! क्या बताएं साहब, ये नींद बहुत सताती है ।

                                        -पंकज नयन गौतम













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