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तू सत्य का सामना कर

बस छोड़ दे संसार को, न सोच तू व्यवहार को, ना मोह के विचार को, बस एक ही उपासना कर, तू सत्य का सामना कर ।। जो हो चुका, वो हो चुका, जो हो रहा, वह हो रहा, जो होना है, वो होना है, इनसे व्यथित खुद को ना कर, तू सत्य का सामना कर ।। 'खुशी', बस एक शब्द मात्र, 'दुःख' भी है एक शब्द मात्र, अभिनय करते तो नाट्यपात्र, रोया ना कर, तू हँसा ना कर, तू सत्य का सामना कर ।। तू बन जा अब तो उदासीन, भव बैठक से हो निरासीन, रहना होगा अब शून्यलीन, अब बस यही आराधना कर, तू सत्य का सामना कर ।। सत्य क्या है? , 'कुछ नहीं' ये अनंत है ये शून्य ही, यह तो स्वयं भगवान ही, अन्यत्र अब जाया न कर, तू सत्य का सामना कर ।।                      - पंकज नयन गौतम

विंडो सीट

*विंडो सीट* आज फिर से छोटे बड़े सभी पेड़ बिना होड़ लगाए ना ही जीतने को पीछे की ओर दौड़े जा रहे हैं । आज फिर से दूर पहाड़ों के पीछे से लालिमा समेटे हुए नई उमंग के साथ सबको उज्ज्वल करने सूरज निकल रहा है। आज फिर से हरे-भरे खेतों पर चारदीवारी से बाहर स्वछन्द माहौल में दिन शुरू करने किसान टहल रहे हैं। आज फिर से खुले हुए आसमां में सीमाओं से बिना बंधे विभिन्न समूहों में एकता दर्शाते हुए पक्षी चहक रहे हैं। आज फिर से मन को आनंदित करती नव ऊर्जा को भरती अनवरत बिना थके प्रफुल्लित करती हुई पवन चल रही है। आज फिर से दो किनारों के बीच सुंदर नृत्य करती हुई शांत वातावरण में संगीत गुनगुनाती हुई तरंगणी बह रही है। आज फिर से बहुत दिनों बाद मैं निज ग्राम की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ , , हां मैं विंडो सीट पर हूँ। हां मैं विंडो सीट पर हूँ।।       - *पंकज नयन गौतम*

नव ईस्वी सम्वत् की हार्दिक शुभकामनाएं

चलिए मान लेते हैं, कि नहीं बदलता मौसम, न ही कुछ नया हो जाता है , ना नए फूल खिलते, न ही भंवरा गुनगुनाता है, लेकिन यह दिन भी तो है अपनी ही ज़िन्दगी का मना लेते हैं यार,आखिर, मनाने में क्या जाता है।। गलत सोचते हैं हम कि वो नही मनाते हमारा तो उनका हम क्यों मनाएंगे खुद ही डरते हैं अपनी, हम संस्कृति भूल जाएंगे, अमिट सभ्यता अपनी तू व्यर्थ ही घबराता है, मना लेते हैं यार,आखिर, मनाने में क्या जाता है।। ऐसा करते हैं कि, उनका तरीका छोड़कर, हम अपना अपनाते हैं वो डिस्को में नाचें, हम भजनों को गाते हैं, इस दिन को मनाने से ग़र कुछ अच्छा आता है मना लेते हैं यार,आखिर, मनाने में क्या जाता है।। अच्छा ये सोचो, मिल जाता है बहाना सब से बातें करने का, साल भर की यादों को अपनी झोली में भरने का , बिना समय के होते भी जब समय मिल जाता है मना लेते हैं यार,आखिर, मनाने में क्या जाता है।।                            - पंकज 'नयन' गौतम

अरे यार! समय नहीं है

ये है क्या, जो किसी के पास नहीं है, पास होते हुए भी यह, पता नहीं क्यों नहीं है हमेशा जिसे देखो तब, अरे यार समय नही है । यदि समय नही है तो कैसे कर लेते हो कुछ, इस चीज़ के लिए नहीं तो किसके लिए बहुत कुछ, नही बताया उसने क्योंकि अरे यार समय नहीं है। समय भी कैसा है ये दूसरों के लिए तो है, जिनसे है मात्र दिखावा, ऐसा नहीं कि और नहीं है बात अपनों की हो तो, अरे यार समय नहीं है। है किसके पास कहीं ऐसा तो नही है कि इसका वजूद ही नहीं, लेकिन ऐसा तो नहीं है, ढूंढ़ेंगे हम इसे लेकिन, अरे यार समय नहीं है।  चलो ठीक है, मान लेते हैं कि नहीं है, कुछ तुम निकालो कुछ मैं, हां, ये बिल्कुल सही है इतना भी न हुआ क्योंकि अरे यार समय नहीं है। ये समय है बस इसे पहचान लो तुम निकालोगे जरूर मेरे लिए थोड़ा जल्दी, जान तो तुम कहीं मैं भी न बोल दूँ कि अरे यार समय नहीं है।               -पंकज 'नयन' गौतम

धनवान भिखारी

    कभी - कभी कुछ घटनाएं  हमारे सामने ऐसी घटित हो जाती हैं,जो आजीवन अविस्मरणीय हो जाती हैं और ऐसी सीख दे जाती हैं जो हम सीखने की कोशिश करने पर भी नहीं सीख पाते।        उस दिन रविवार था , और हमेशा की तरह मेरी सुबह दोपहर को ही हुई थी। रूम में मैं अकेला ही था तो खाना बनाने की इच्छा नहीं हो रही थी। ज्यादा सो कर थक गया था तो थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं भोजनालय की ओर निकल पड़ा।         वहां पहुंचने पर पता चला कि अभी कुछ विलम्ब है । मुझे थोड़ी देर बाद आने को कहा गया , लेकिन आलसी मनुष्य होने का कर्तव्य निर्वहन करते हुए मैं वहीं बाहर रखी कुर्सी पर आराम से बैठ गया और इंतजार करना ज्यादा उचित समझा। और अलसाई हुई आंखों से इधर-उधर देख ही रहा था  कि सामने से एक वृद्ध विकलांग भिखारी  जो ठीक से चल भी नहीं पा रहा था एक लाठी के सहारे धीरे धीरे इसी भोजनालय की ओर आ रहा था तब मेरा कोई विशेष ध्यान उस पर नहीं गया था। पास आया तो मैंने देखा कि उसके पास एक पैकेट बिस्किट थी और ऐसा लग रहा था कि वह अभी तक भूखा है कुछ नहीं खाया है। वह अपनी लाचार...

एक ख्वाहिश

जो संजोए हूँ वर्षों से, उसे खोना चाहता हूँ, इन 'आवाजो' से खाली मैं होना चाहता हूँ, थक गया हूँ अब इन भावों को ढोते- ढोते, अब हवाओं में खुलकर मैं रोना चाहता हूँ।। कर दिया हूँ अलग सुख और दुख को बहुत, फिर  इनको एक साथ, पिरोना चाहता हूँ । खुलके हंसता हूँ खुशियों में मैं जिस तरह, कष्ट में भी उस तरह , मैं रोना चाहता हूँ।। अरसों हो गए हैं मुझको तो सोए हुए, उन्मुक्त नींद ही अब, मैं सोना चाहता हूँ। बस तलाश जारी है उपयुक्त बिछौने की, उस तकिए के सहारे, मैं रोना चाहता हूँ।। दिल तो भीगा हुआ है आँसुओं से मगर, अब पलकों को भी , भिगोना चाहता हूँ। थक गया हूँ नाटक में यूं चलते चलते, एक ही है ख्वाहिश, मैं रोना चाहता हूँ।।                    - Pankaj Nayan Gautam

दोहे : परीक्षा की तैयारी

-लेना शुरू कर दीजिए, अपने प्रभु का नाम । पेपर शुरू अब हो गए, आयेंगे वे काम ।१। आओ मेरे साथियों, हो जाओ तैयार । पुस्तक को कवच बनाइए, कलम बने हथियार ।२। चौबीस घंटे का सिस्टम, सोच लिया अब जाय । जो भी बुक नहि पास में, उन्हें खरीदा जाय ।३। पहले दिन की उत्सुकता,पूरा दिन लिए सोय । यही सोचकर रात में, अधिक पढ़ाई होय ।४। पूरे दिन अपने अंदर,समझाते यह बात । दो नींद के होते ही, आय गई वो रात ।५। तीस मिनट तो प्रेम से, लिये पेज पलटाय । बोला 'अंदर' से कोई, अब चाय हो जाय ।६। फिर आते हैं मुद्दे पर, लिए किताब को खोल । तब मोबाइल उछल पड़ा, मुझसे भी कुछ  बोल ।७। फेसबुक ट्विटर एप्प्स फिर, व्हाट्सएप इंस्टाग्राम । इनमें दिल फिर रम गया, भूले अपना काम ।८। कल से पक्का पढ़ लेंगे, लिये यही फिर ठान । तान रजाई सो गये,ठीक समय को जान ।९। समय और हम खेलते, रोज यही अब खेल । कल पेपर से सामना, और हमारा मेल ।१०।                      -   पंकज नयन गौतम

पानी बन जाऊं

तुझ जैसा भी, मुझ जैसा भी, हर स्थिति में, जो जैसा भी, जब मन चाहे, मैं ढल जाऊं, अब जी करता, पानी बन जाऊं।। श्वेत भी मेरा,  कृष्ण भी मेरा, हरा भी मेरा , लाल भी मेरा, जितने रंग हैं,सबमे रंग जाऊं अब जी करता, पानी बन जाऊं।। जीव जंतु हों ,  हों  चाहे मानव  देव पुरूष हों,  हों  चाहे दानव  सबके जीवन का अंग बन जाऊं अब जी करता , पानी बन जाऊं।। ना कोई राजा, ना ही भिक्षुक, सबके लिए हूँ, जो हैं इच्छुक, ऐसा भाव ही, घर कर जाऊं, अब जी करता, पानी बन जाऊं।। तरल बनूँ मैं , ओस बनूँ मैं, जब तू चाहे , ठोस बनूँ मैं, मेरे तन में , तेरा मन पाऊँ, अब जी करता,पानी बन जाऊं।। नदियां , झरने और सरोवर, एक बूंद हो या हो समुन्दर, इन सबका , हो संगम जाऊं अब जी करता,पानी बन जाऊं।। गंगा, यमुना, सिंधु ही नहीं, नील, अमेजन और भी सभी, एक ही नहीं सब के संग गाऊं, अब जी करता पानी बन जाऊं।।                     -पंकज 'नयन' गौतम

''माँ-बाप मुस्कुराएं तो,,,,,,"

- स्वर्ग से भी ऊंची वो मन्जिल मिल जाती हैं ख्वाहिशों के बागों की सब कलियां खिल जाती हैं,, खुश होते हैं तब हम दिल की गहराइयों से, माँ-बाप मुस्कुराएं तो सारी कायनात मुस्कुराती है।१। ये असीमित गगन बस यही कह रहा है, स्थिर समुन्दर भी हमसे यही कह रहा है, सृष्टि का तो नियम बस यही चल रहा है, अविरल नदियां औए हवाएं यही गुनगुनाती हैं,,,,, माँ-बाप मुस्कुराएं तो सारी कायनात मुस्कुराती है।२। न जरूरत मुझे किसी अन्य भक्ति से है, इस निस्वार्थ मन को न किसी शक्ति से है, न परम् ज्ञान और  न मोक्ष , मुक्ति से है, ये सब भी मिलकर बस यही गीत गाती हैं, माँ-बाप मुस्कुराएं तो सारी कायनात मुस्कुराती है।३। श्रद्धा,पूजा, तप ,वन्दन सब तो इनमें ही है, हम भी  ढूँढ़ते जो भगवन  वो इनमें ही है, शास्त्र, ग्रन्थ जितने सनातन सब इनमें ही है,  मन्त्र, वैदिक ऋचाएं सब यही धुन सुनाती हैं, माँ-बाप मुस्कुराएं तो सारी कायनात मुस्कुराती है।४। जिन्होंने मुझको 'लिखा' उनको मैं क्या लिखूं, अस्तित्व जिनसे है मेरा, उन्हें बयाँ क्या करूँ, सम्पूर्ण महाकाव्य हैं, चंद पंक्तियों में कह न सकूँ जब ...

घर याद आता है!

हाँ, मैं भी आया हूँ कहीं दूर अपनों से , सोंचकर कि वहीं मुलाकात होगी सपनों से, हाँ, आसान होता है यह ,मैनें माना भी था, मैं 'निर्दोष' इन सबसे अनजाना भी था अब जब भी वक्त कोई नया गीत गाता है, तब तब मुझे मेरा घर याद आता है । तब तब मुझे मेरा घर याद आता है । चुना वही कदम , चुनते हैं सब जिसे, चलकर इस रस्ते में, बना लेंगे अपना इसे, नज़र आईं खुशियां जब रूबरू न थे, भले ही चल पड़े मगर तब 'शुरू' न थे, जब भी मुझे वो 'पहल' ख्याल आता है, तब तब मुझे मेरा घर याद आता है। तब तब मुझे मेरा घर याद आता है । मिलता था जो भी खा लेते थे सब, 'नापसन्द' शब्द से ना वाकिफ़ थे तब, प्यार के साथ हमको तो मिलता भी था, भूख मिटने के साथ मन तो भरता भी था, यहां का खाना जब बिल्कुल न भाता है, तब तब मुझे मेरा घर याद आता है। तब तब मुझे मेरा घर याद आता है।  यहां अन्धकार का नामोनिशां ही नहीं,  हम ढूंढते थे जिसे है वही बस यहीं, तब नाचीज़ थी जो अब वो अनमोल है, दूर करते जिसे अब वो खुद गोल है,, अब जब जब यहां 'तम'* नज़र आता है, तब तब मुझे मेरा घर याद आता है। तब तब मुझे मेर...